
बागेश्वर। ऐतिहासिक नगरी बागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी मेले का मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विधिवत उद्घाटन किया। इस मौके पर रंगारंग झांकियां निकाली गईं। जिलाधिकारी ने झांकियों को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। मुख्य बाजार से होते हुए झांकियां नुमाइशखेत मैदान पहुंचीं। एतिहासिक, सांस्कृतिक परिवेश को अपने में समेटे झांकियों ने सभी का मन मोह लिया। इस मौके पर सीएम धामी ने कहा कि बाबा बागनाथ की यह धरती पवित्र है। यहीं से साल 1921 में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंका गया था। उन्होंने नुमाइश मैदान में लगे सरकारी स्टॉलों एवं किसानों के उत्पादों की प्रदर्शनी का भी अवलोकन किया।
पौराणिक धरोहरों को समेटे उत्तराखंड की काशी के नाम से प्रसिद्ध बागेश्वर में माघ माह में होने वाले उत्तरायणी मेले की अलग ही पहचान है। सरयू, गोमती और विलुप्त सरस्वती के संगम तट पर बसे शिवनगरी बागेश्वर में हर साल मकर संक्रांति के दिन से आठ दिन का मेला लगता था, इस बार दो वर्ष बाद हो रहा मेला दस दिन तक चलेगा।
उत्तरायणी मेले के शुभारंभ पर रंगारंग झांकियां निकलीं। इन झांकियों में मदकोट का विशाल नगाड़े के साथ ही दारमा के कलाकारों का नृत्य, स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत झोड़ा, चांचरी और विभिन्न स्कूलों द्वारा पेश किया गया। भांगड़ा, झोड़ा-चांचरी पेश करती स्थानीय महिलाएं, रं समुदाय की महिलाएं, छोलिया नृतकों ने सभी का मन मोह लिया।
विभिन्न क्षेत्रों से आये सांस्कृतिक दलों ने कुंमाउंनी संस्कृति और सभ्यता को झांकी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। दलों की टोलियों ने बाबा बागनाथ मंदिर में भी पूजा अर्चना की। झांकी तहसील परिसर से गोमती पुल, स्टेशन रोड, कांडा माल रोड़, सरयू पुल, दूग बाजार होते हुए नुमाइशखेत पहुंची। झांकी में जोहार संस्कृति पर आधारित लोक संगीत आकर्षक का केंद्र रही। झांकी में विकास प्रदर्शनी सहित विद्यालयों के बैंड आदि ने भी प्रतिभाग किया।
गौरतलब है कि कुली बेगार का अंत उत्तरायणी मेले के दौरान 14 जनवरी, 1921 में कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे की अगुवाई में हुआ था। इसका प्रभाव पूरे उत्तराखंड में था। कुमाऊं मण्डल में इस कुप्रथा की कमान बद्री दत्त पांडे जी के हाथ में थी। वहीं, गढ़वाल मंडल में इसकी कमान अनुसूइया प्रसाद बहुगुणा के हाथों में थी। 13 जनवरी 1921 को संक्रांति के दिन एक बड़ी सभा हुई और 14 जनवरी को कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू में प्रवाहित कर कुली बेगार का अंत किया गया। 28 जून, 1929 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बागेश्वर की यात्रा की और ऐतिहासिक नुमाइशखेत में सभा कर इस अहिंसक आंदोलन की सफलता पर लोगों के प्रति कृतज्ञता जता इसे रक्तहीन क्रांति कहा था।