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माफिया अतीक अहमद की जिंदगी का यह सबसे नाटकीय घटनाक्रम रहा। पुलिस के सख्त पहरे और चैतरफा घेरेबंदी के बावजूद, किसी ने मीडिया का मुखौटा धारण कर, अतीक और उसके छोटे भाई अशरफ पर गोलियां चला दीं और कुछ ही सेकंड में जिंदगियां निष्प्राण हो गईं। माफिया के रूपक बने दोनों भाई मारे गए। गोलीबारी करने वाले ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष करते रहे, जाहिर है कि वे किसी हिंदूवादी संगठन के सदस्य होंगे! यह हत्यावादी हमला भी किसी साजिशाना रणनीति का हिस्सा हो सकता है! अतीक और अशरफ को ‘लाश’ बनाने वालों ने आत्म-समर्पण भी कर दिया। उन पर हत्या का मुकदमा चल सकता है। साक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट और सार्वजनिक हैं। उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने न्यायिक आयोग से जांच के आदेश दिए हैं। बेशक अतीक की माफियागीरी का फिलहाल अंत को चुका है, लेकिन उसके चार बेटे (दो बालिग, दो नाबालिग) पुलिस की गिरफ्त में हैं। जब भी वे जेल से मुक्त होंगे, क्या वे भी माफियागीरी का रास्ता अख्तियार करेंगे? क्या इस तरह अतीक और अशरफ की मौत भी एक सांप्रदायिक मुद्दा बन सकती है? क्या सपा, बसपा और ओवैसी इस मौतकांड को ‘मुस्लिमवाद’ के तौर पर प्रचारित करेंगे? अतीक को मुलायम सिंह यादव और मायावती सरीखे नेताओं का संरक्षण हासिल था, जिसकी छाया में वह माफिया बनता चला गया।
अतीक के खिलाफ 100 से अधिक आपराधिक केस बताए जा रहे हैं। करीब दर्जन भर राज्यों में अतीक की ठेकेदारी भी माफियागीरी की तर्ज पर चलती रही। उसने अपराध और कारोबार से करोड़ों रुपए अर्जित किए। उप्र सरकार का दावा है कि वह 400 करोड़ रुपए से ज्यादा की अतीक की संपत्ति को जब्त कर चुकी है। बुलडोजर से न जाने कितना नुकसान किया होगा, लेकिन इस माफिया कांड का सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या किसी अपराधी की आपराधिक और दंडनीय नियति पुलिस और सरकार ही तय कर सकती है? दरअसल भारत के दंड-विधान और संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो मुठभेड़ और मानवीय हत्या की इजाजत देता हो। हम मुठभेड़ या फांसी पर लटकाने की प्रक्रियाओं के खिलाफ हैं। हालांकि कानून में पुलिस को कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं, जो आत्मरक्षा या अपराधी के भाग जाने अथवा किसी अन्य अपरिहार्य स्थितियों में इस्तेमाल किए जा सकते हैं। हम हरेक मुठभेड़ या इस तरह की हत्या को ‘फर्जी’ या ‘सांप्रदायिक’ करार देने के भी पक्ष में नहीं हैं। हालांकि अतीक और उसके बेटे असद की हत्याओं के संदर्भों में सर्वोच्च अदालत के दिशा-निर्देश गौरतलब हैं।
मुठभेड़ और हत्या होने के बाद धारा 176 के तहत, मामले की, अनिवार्य रूप से न्यायिक जांच की जानी चाहिए। क्या मुख्यमंत्री का आदेश पर्याप्त है? मुठभेड़ हो, तो उसकी रपट धारा 190 के तहत अधिकार-क्षेत्र वाले न्यायिक मजिस्टे्रट को भेजी जानी चाहिए। राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों को भी इसकी रपट भेजी जानी चाहिए। मुठभेड़ के बाद प्राथमिकी तुरंत दर्ज की जानी चाहिए और उसे धारा 157 के तहत, बिना किसी देरी के, अदालत को भेजनी चाहिए। बुनियादी तौर पर यह मामला मुठभेड़ का है, क्योंकि 24 फरवरी के उमेश पाल हत्याकांड से जुड़े सभी 6-8 आरोपितों को मुठभेड़ के जरिए या हत्या कर समाप्त किया गया है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 23 मार्च, 2022 को राज्यसभा को अवगत कराया था कि देश भर में बीते छह सालों के दौरान मुठभेड़ के 813 केस दर्ज कराए गए हैं। ऐसे मामले बीते दो साल में करीब 70 फीसदी बढ़े हैं। अप्रैल, 2016 के बाद से हर तीसरे दिन औसतन एक मुठभेड़ जरूर हो रही है। कोरोना महामारी के ‘चरम’ के दौरान मुठभेड़ें और हत्याएं कम हुई थीं, लेकिन औसतन मुठभेड़ें-हत्याएं अब फिर बढ़ रही हैं। अतीक का विषय इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, लेकिन इससे कानून और संविधान के सरोकार जुड़े हैं।
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