उत्तराखण्ड का पर्वतीय क्षेत्र अपनी अकूत वन संपदा और वनस्पतियों की विविधता के लिए जाना जाता है, लेकिन पिछले कुछ सालों मे शिवालिक पर्वत शिखरों मेें पाई जाने वाली जड़ी बूटियाँ अवैध दोहन और तस्करी के चलते तेजी से विलुप्त हो रही है। उत्तराखण्ड के हिमालय को हिमवंत औषधम भूमिनाम कहा गया है अर्थात जहाँ औषधीय पौधों की भरमार है। महर्षि चरक, सुश्रुत, वांगभट्ट से लेकर धनवंतरि के शोध ग्रन्थ द्रव्य गुण विज्ञान में पाँच सौ से अधिक जड़ी बूटियों के इस क्षेत्र में पाए जाने का वर्णन मिलता है।
हिमालय क्षेत्र में पाई जाने वाली जड़ी बूटियाँ ही आयुर्वेद चिकित्सा के ज्ञान का आधार रही है, जिनका आयुर्वेदाचार्यो ने दिल खोलकर गुणगान किया है, परन्तु प्रकृति प्रदत्त यह बेशकीमती संपदा अब छीज रही है। पहले स्थानीय लोग यहाँ की जड़ी बूटियों से परंपरागत रुप से लाभान्वित होते थे, लेकिन अब मोटी रकम कमाने की चाह में तस्करों ने गाँव वालों के साथ मिलकर इनका बेजा दोहन कर पहाड़ को कई महत्वपूर्ण बूटियों से विहीन कर दिया है। ये दुर्लभ जड़ी बूटियाँ तस्करी के जरिए विदेश पहुंच रही है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार पहाड़ की दो सौ से अधिक जड़ी बूटियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर है। कई तो विलुप्त हो चुकी है। शोधकर्ता भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग ने इनके अस्तित्व पर संकट का कारण मनमाफिक दोहन,, वनों का कटाव, वनों में हर साल लगने वाली आग तथा प्राकृतिक वन संपदा का क्षरण होना बताया है।
अवैध दोहन का एक मुख्य कारण यह भी है कि यूरोपीय व अन्य देशों में आयुर्वेदिक दवाओं के प्रति आकर्षण के चलते कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण में उतर आई है। इस कारण तस्करी बढ़ी है और हमारी बहुमूल्य बूटियाँ चोरी छिपे विदेशों में पहुँच रही है। पिछले कुछ सालों मे हमारी तीन दर्जन से अधिक वनौषधियों को विदेशों में पेटेंट भी करा लिया गया है।
पहाड़ की संकटग्रस्त औषधीय पौधों की प्रजातियों में टैक्सस बकाटा, कूठ, पुनर्नवा, सर्पगंधा, हरड़, जटामांसी, कीड़ाजड़ी, शतावर, गूलर, चिरायता, सालमपंजा, कासनी, कालाबाशा, पिपली, जिंबू ,आक, कौंच, वज्रदंती आदि शामिल हैं।
इन जड़ी बूटियों में टैक्सस बकाटा अर्थात टैक्साल को कैंसर की औषधि के रुप मे प्रयोग किया जाता है। टैक्साल का मूल स्रोत टैक्सस ब्रेविफोलिया नामक वृक्ष की छाल है। कुमाऊं में इसे थनेर नाम से जाना जाता है। एक से दो ग्राम टैक्साल की कीमत 3 लाख से अधिक होती है। कई जगह तस्कर चोरी छिपे इस पेड़ की छाल निकालकर या पेड़ को ही काटकर ले जाते हैं। नतीजतन यह अमूल्य वनस्पति आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही है।
संकटग्रस्त प्रजातियों में खैर व भोज वृक्ष का बड़े स्तर पर अवैध कटान हो रहा है। खैर का उपयोग कत्था व गुटखा बनाने में होता है। इधर बाजार में नित नए गुटखे आने से खैर की मांग बहुत बढ़ गयी है। मांग बढऩे का अर्थ है तस्करी का भी बढऩा। इसी तरह भोज वृक्षों की संख्या भी बहुत कम रह गई है। कभी हमारे श्रृषि मुनियों ने इसकी छाल पर कई ग्रंथ लिखे थे। स्वयं इस लेखक ने पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा में देखा था कि गाँव वाले ही ईंधन के लिए भोज वृक्षों को काट रहे है।
हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में एक नायाब जड़ी मिलती है, जिसे हमारे यहाँ कीड़ाजड़ी तो तिब्बत व चीन में यारशागुंबा कहा जाता है। चीन में इसका इस्तेमाल एथलीटों की क्षमता बढ़ाने के लिए प्राकृतिक स्टीरॉयड के रुप में ट्री किया जाता है। यही कारण है कि पिथौरागढ़ जनपद के धारचुला, मुनस्यारी के ऊँचे इलाकों में स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर इसका दोहन व तस्करी कर रहे हैं कयोंकि चीन में इसकी मुंहमांगी कीमत मिल रही है। इसके संग्रह और व्यापार से जुड़े लोगों में अक्सर खूनी संघर्ष तक देखने को मिलता है।
यह जड़ी 3500 मीटर की ऊंचाई पर हिम आच्छादित क्षेत्र में पाई जाती है, जहाँ ट्री लाइन खत्म हो जाती हैं। सामान्य तौर पर यह एक जंगली मशरुम है, जो एक खास तरह के कीड़े के कैटरपिलर्स को मारकर उस पर पनपता है। स्थानीय लोग इसे कीड़ाजड़ी इसलिए कहते है क्योंकि ये आधा कीड़ा है और आधा जड़ी। इसकी बड़े पैमाने पर तस्करी हो रही है। दुनिया भर में लोग आयुर्वेद की ओर मुड़ रहे है। विदेशों में जड़ी बूटियाँ दुर्लभ है पर भारत में इनकी प्रचुरता है। इसलिए दुनिया भर की दवा कंपनियों और तस्करों की नजरें भारत की इस संपदा पर टिकी है। वनौषधियों की विलुप्तता का एक कारण यह भी है कि महत्वपूर्ण जड़ी बूटियों की पहचान करने वाले परंपरागत पीढ़ी के वनस्पति विशेषज्ञ अब नहीं रहे और जिन्हें इनका ज्ञान है वे जानकारियों को अपने तक ही सीमित रख नई पीढ़ी को इस ज्ञान से वंचित कर रहे हैं।
जानकारों का कहना है कि जंगल से जड़ी बूटियों को खोज निकालना जितना मेहनत का काम है उतना ही श्रम साध्य है इन जड़ी बूटियों को तोडऩा। जिस पौधे की जड़ दवा बनाने मे काम आती है , उसे उखाड़ देने से पूरा पौधा ही मर जाता है। जंगल मे वन औषधीय पौधे अपने आप उगते हैं, पर तस्कर बड़ी बेरहमी से जड़ों सहित इन पौधों को उखाड़ कर ले जाते हैं।
तस्कर कई बार सीधे सादे गाँव वालों से औने पौने दामों में जड़ी बूटियाँ खरीद लेते है। गाँव वाले जड़ी बूटियों के वास्तविक मूल्य से अनभिज्ञ रहते है और चंद रुपयों के बदले वनौषधियों को तस्करों के हाथों बेचकर खुश हो जाते है। बड़ी क्रूरता से किए जा रहे अवैध व अनियंत्रित दोहन से अनेक दुर्लभ वनौषधियों की प्रजातियां विलुप्त हो चुकी है और जो बची है वे भी विलुप्ति की कगार पर है।
(दीपक नौगांई- विभूति फीचर्स)